मध्यप्रदेश - मृदा का वर्गीकरण Mp gk in hindi

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यह राज्य देश के दक्षिणी प्राद्वीपीय पठार का वह भू-भाग है, जहाँ विस्तृत भू-भाग में अवशिष्ट मृदा पाई जाती है, क्योँकि यहाँ की मृदा की प्रकृति के निर्धारण में यहाँ की चट्टानें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

मध्यप्रदेश की प्रमुख मिट्टियाँ या मृदायें।

शैलों के विघटन एवं वियोजन से उत्पन्न ढीले एवं असंगठित भू-पदार्थों को मृदा कहते हैं। नदी घाटियों को छोड़कर अधिकतम मध्यप्रदेश में प्रौढ़ मृदायें पाई जाती हैं, क्यूंकि राज्य की मृदा की प्रकृति का निर्धारण यहाँ पाई जाने वाली प्राचीन चट्टानों के द्वारा हुआ है।
क्षेत्रीय कारकों के आधार पर राज्य की मृदाओं को निम्नलिखित पांच प्रकारों में विभाजित किया गया है।

( 1 ) काली मिट्टी - 

यह मृदा राज्य में मालवा पठार, सतपुड़ा के कुछ भाग तथा नर्मदा घाटी में मिलती है।
इस मृदा को रेगुर मृदा भी कहते हैं। काली मृदा बेसाल्ट नामक आग्नेय चट्टानों के श्रतुक्षरण से बनी है। यह गहरे रंग की दोमट मृदा है, जो चीका और बालू के मिश्रण से बनती है। इसमें लोहे और चुने की मात्रा अधिक होने से इसका रंग काला होता है। इस मृदा में बालू की मात्रा बहुत कम पाई जाती है। पानी डालने पर यह मृदा चिपचिपी हो जाती है तथा सूखने पर दरारें पड़ जाती हैं। कपास की कृषि के लिए यह मृदा अधिक उपयोगी है। इस मृदा में फॉस्फोरस, नाइट्रोजन तथा अन्य जैव तत्वों की कमी होती है।
रंग एवं मोटाई के आधार पर इस मृदा को निम्न प्रकार से तीन वर्गों में विभाजित किया गया है - ( १ ) गहरी काली मृदा ( २ ) साधारण गहरी काली मिट्टी ( ३ ) छिछली काली मिट्टी

( 2 ) लाल-पीली मृदा - 

लाल पीली मृदा का निर्माण आर्कियन, धारबाड तथा गोंडवाना चट्टानों के श्रातुक्षरण से हुआ है। लाल-पीली मृदायें साधारणतः साथ साथ पाई जाती हैं। लाल रंग लोहे के ऑक्सीकरण तथा पीला रंग फेरिक ऑक्साइड के जलयोजन के कारण होता है। यह हलकी बलुई मृदा है, जिसमें चुने की मात्रा होती है, परन्तु निक्षालन के कारण इसमें ह्यूमस तथा नाइट्रोजन की कमी होती है, इसलिए इसमें उर्वरता कम पाई जाती है। इसका पीएच मान 5.5 से 8.5 तक होता है। राज्य में यह मृदा मुख्यरूप से मंडला, बालाघाट, शहडोल तथा सीधी जिलों में पाई जाती है।

( 3 ) जलोढ़ मृदा - 

जलोढ़ मृदा का निर्माण बुंदेलखंड नीस तथा चम्बल द्वारा निक्षेपित पदार्थों से हुआ है। इस मृदा की उर्वरा शक्ति अधिक होती है। यह मृदा प्रदेश के मुरैना, भिंड, ग्वालियर तथा शिवपुरी जिलों में लगभग 30 लाख एकड़ क्षेत्रफल में फैली है। इस मृदा में नाइट्रोजन, जैव तत्व तथा फॉस्फोरस की कमी होती है। इस मृदा का पीएच मान 7 से अधिक होता है। बालू की अधिकता के कारण इस मृदा में अपरदन कम होता है। उर्वरता शक्ति अधिक होने के कारण इस मृदा में गेहूं, कपास, गन्ना आदि फसलें उगाई जाती हैं।

( 4 ) कछारी मृदा - 

कछारी मृदा का निर्माण नदियों द्वारा बाढ़ के समय अपवाह क्षेत्र में निक्षेपित पदार्थों से हुआ है। राज्य में इस मृदा का विस्तार श्योपुर जिले की विजयपुर तहसील, भिंड जिले की भिंड तहसील, मुरैना जिले की मुरैना, अम्बाह, जौरा व सबलगढ़ तहसीलों के अधिकांश भागों पर तथा ग्वालियर, श्योपुर व पोहरी के कुछ भाग पर है। यह मृदा गेहूं, गन्ना तथा कपास की फसल के लिए उपयुक्त है।

( 5 ) मिश्रित मृदा - 

प्रदेश के अनेक क्षेत्रों में लाल, पीली एवं काली मृदा मिश्रित रूप में पाई जाती है। यह मृदा टीकमगढ़, पन्ना, रीवा, सतना, सीधी आदि जिलों में पाई जाती है। यह मृदा फॉस्फेट, नाइट्रोजन एवं कार्बनिक पदार्थों की कमी वाली कम उपजाऊ मृदा है। इस मृदा में मुख्य रूप से ज्वार, बाजरा जैसे मोटे अनाज पैदा किये जाते हैं।

राज्य में मृदा अपरदन

अपरदन के बिभिन्न कारकों द्वारा मृदा की सतह से मृदा के महीन कणों का कट-कटकर बहना मृदा अपरदन कहलाता है। राज्य के अधिकतर भाग पठारी एवं पहाड़ी हैं। उपयुक्त ढाल होने के कारण मानसूनी बर्षा एवं भूमि का गलत उपयोग होने से राज्य में मृदा अपरदन एक कठिन समस्या बन गई है। चम्बल की घाटी तथा नर्मदा नदी के किनारे इस समस्या से अधिक ग्रस्त हैं। इस भाग में वनस्पति विहीन मृदा होने के कारण मानसूनी वर्षा अवनालिका अपरदन द्वारा भूमि का कटाव तेजी से करती है। मृदा अपरदन की इस समस्या का समाधान करने के लिए राज्य का कृषि विभाग, विश्व बैंक के साथ मिलकर अनेक प्रयास कर रहा है। मृदा अपरदन से श्योपुर, भिंड व मुरैना जिले प्रभाबित हैं।
इनमें सबसे ज्यादा प्रभावित मुरैना जिला है। मृदा अपरदन रोकने के लिए पशु चराई पर नियंत्रण, कंटूर खेती तथा वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जा रहा है। मृदा अपरदन को रोकने के लिए छोटे-छोटे बांधों का निर्माण एवं  भूमि का चक्रीय पद्धति द्वारा उपयोग करने पर बल दिया जा रहा है।

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